रिव्यू-जा ‘सिमरन’ जा, जीने दे हमें चैन से
-दीपक दुआ…
एक लड़की थी दीवानी-सी। अमेरिका में वह रहती थी। पैसे की जरूरत होती जब उसे,बैंक वह लूटा करती थी।
‘बॉम्बशैल बैंडिट’ यानी संदीप कौर की उसी कहानी पर बनी इस फिल्म से हंसल मेहता जैसे बड़े निर्देशक और कंगना रनौत जैसी अदाकारा का नाम जुड़ा देख कर हर कोई इसकी तरफ उम्मीदों से देख रहा था। लेकिन ये उम्मीदें उस वक्त चकनाचूर हो जाती हैं जब आप पाते हैं कि फिल्म की कहानी का कोई ओर-छोर नहीं है। सिर्फ कंगना की पब्लिक में बन चुकी और इंडस्ट्री में बनाई जा रही ‘सैल्फमेड क्वीन’ वाली इमेज को और पुख्ता करने और भुनाने के इरादे से बेसिर-पैर की अतार्किक घटनाएं दिखा कर एक ऐसी स्क्रिप्ट खड़ी की गई है जो किसी भी नजरिए से न तो किसी किस्म का मनोरंजन करती है, न कोई मैसेज देती है, न कुछ ठोस दिखाती है और न ही कुछ कह पाती है। बल्कि इसे देख कर यह सवाल मन में आता है कि यह फिल्म बनाई ही क्यों गई?
अमेरिका में मां-बाप के साथ बढ़िया मकान में रह रही लड़की को अपना घर चाहिए ही क्यों? उसे तलाकशुदा दिखाने का मकसद क्या था? उसके तेवर बेवजह बागी क्यों हैं? ये बगावत गुंडों के सामने कहां चली जाती है? दूसरों से हमेशा वह बेइज्जती करने वाले अंदाज में ही क्यों बतियाती है?वहां बैंकों के बाहर कैमरे नहीं होते क्या? मुमकिन है अमेरिकी बैंकों में बेवकूफ काम करते हों लेकिन भारतीय सिनेमाघरों में भी उतने ही बड़े बेवकूफ बैठे हैं, यह हंसल मेहता और उनके लेखक अपूर्व असरानी ने कैसे सोच लिया?
आप चाहें तो कंगना की डायलॉग डिलीवरी की गलतियों पर ध्यान दिए बिना उन्हें पसंद कर सकते हैं। डायरेक्टर को सहयोगी भूमिकाओं में कोई दमदार कलाकार नहीं मिले क्या? गाने ठस्स हैं जो लगातार गलत काम कर रही नायिका की तारीफें किए जा रहे हैं।
भीतर कंगना के प्रति प्यार बहुत उछाले न मार रहा हो और अपनी जिंदगी को खुशगवार ढंग से जीना हो तो इस ‘सिमरन’ को जाने दीजिए, जितना दूर हो सके…।
अपनी रेटिंग-डेढ़ स्टार
यह आलेख सब से पहले www.cineyatra.com पर प्रकाशित हुआ है।